तस्वीर बदलती रही / राकेश खंडेलवाल
हम हुए अजनबी खुद से भी आपकी
सिफ़र् तस्वीर ही बस बदलती रही
आईने की परेशानियों का सबब
क्या मुखौटे थे मेरे या मैं खुद ही था
अक्स जिनको दिखाता रहा आईना
एक कोई भी उनमें से मेरा न था
अक्स के अक्स का अक्स महसूसती
अपने ही अक्स में आईने की नज़र
बिंब कितने प्रतीक्षित रहे मोड़ पर
ख़त्म हो जाए असमंजसों का सफ़र
इक ऊहापोह में थी उलझ रह गई
रिश्मयां बफ़र् जैसे पिघलती रही
गांव की चंद पगडंिडयों के सिरे
आंख मलते हुए स्वप्न बुनते रहे
फड़फड़ाते हुए पृष्ठ इतिहास के
इक भविष्यत को रंगीन करते रहे
काल के चक्र से हाथ की रेख का
न समन्वय हुआ एक पल के लिए
धागे बांधे सदा बरगदों के तले
मन्नतों के मगर जल न पाए दिए
आै' समय की गुफ़ा में किरण आस की
रास्ता ढूं़ढ़ती बस भटकती रही
हम अभी तक खड़े हैं उसी मोड़ पर
तुम जहां थे रुके एक पल के लिए
मुट्ठियों में हैं अवशेष, शपथों के जो
थीं उठाईं गई उमर् भर के लिए
दृष्टि का मेरा आकाश सिमटा हुआ
कुछ न दिख पाता इक दायरे के परे
दीप थाली में नज़रें चुराता रहा
मंत्र भी प्राथर्ना के हैं सहमे डरे
शेष बाकी नहीं गदर् भी राह में
सीटियां बस हवाआें की बजती रहीं
नित बदलते हुए विश्व चलता रहा
कोई ठहराव गति में नहीं आ सका
जिं़दगी दौड़ते दौड़ते चल रही
एक पल भी नहीं हाथ में आ सका
भावनाएं बिछी रह गईं राह सी
आैर संबंध पिहयों से चलते रहे
आस्था ने उगाए जो सूरज सभी
भोर को सांझ करके निगलते रहे
आप भी साथ बदलें हमारे यहीं
साध बस एक सीने में पलती रही
हम बदल कर हुए अजनबी आपकी
सिफ़र् तस्वीर ही बस बदलती रही
तुमने जिसको सुना गूंज थी मौन की
जो कि उजड़ी बहारों में छुप रह गई
आगमन की प्रतीक्षा मदन की लिए
कोंपलें आंख खोले हुए रह गईं
टूटे शीशे की आवाज़्ा संगीत बन
लहिरयों पे हवा की बिखरती रही
गंध जो संदली थी हवा में उड़ी
पेड़ की पित्तयों में सिमटती रही
इक नज़र में न बदली, मगर दूसरी
में वो तस्वीर फिर भी बदलती रही
पत्थरों में उगी नागफ़िनयां रहीं
आप भर्म से उन्हें फूल कहते रहे
सर्ोत सपनों के खंडहर से निकले हुए
नैन के निझर्रों से टपकते रहे
आईने पर जमी गदर् में आईना
बिंब अपना नहीं देख पाया कभी
हां नज़र के भरम में उलझते हुए
तुम रहे, वे रहे आैर रहे हैं सभी
एक वह मिथ्या भर्म तोड़ने के लिए
कोशिशें लेखनी नित्य करती रही
हम बदल कर हुए अजनबी आपकी
सिफ़र् तस्वीर ही इक बदलती रही
रात जैसे तो मन के अंधेरे रहे
आैर चेतन को संशय हैं घेरे रहे
हो गईं बंद पत्तों की जब जालियां
रोशनी क्या छनी आैर बरसात क्या
मृग तो तृष्णा के पीछे भटकता रहा
आैर ये सत्य मन में अटकता रहा
क्यों छलावों में लिपटी रही जिं़दगी
स्वप्न क्यों हर कली सा चटकता रहा
कौन सा है निमित साथ लेकर जिसे
उमर् धड़कन से बंध कर ढुलकती रही
हम हुए अजनबी खुद से भी आपकी
सिफ़र् तस्वीर ही इक बदलती रही