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कुछ तेरे, कुछ मेरे / अजय पाठक

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अंतर्मन के भोज पत्र पर,
गीत लिखे बहुतेरे
सजनी, कुछ तेरे, कुछ मेरे. . .

जब-जब सूरज को देखूँ मैं,
अंजानी-सी लगन लगे।
तेरे पथ की रखवाली में,
रात-रात भर नयन जगे।
दुविधाओं में घिरे हुए दिन,
चिंताओं के फेरे
सजनी, कुछ तेरे, कुछ मेरे. . .

मुझको देख विहँसता चंदा
जब-जब आधी रात का,
पात-पात बिखरा जाता है
मौसम झंझावात का।
इन लम्हों ने मटमैले-से
कितने चित्र उकेरे।
सजनी, कुछ तेरे, कुछ मेरे. . .

अलकों पर सपनों के मोती,
झरते धीरे-धीरे।
भीतर संचित है कितने ही,
माणिक-मुक्ता-हीरे।
मुझको बाँध लिया करते हैं,
इंद्र धनुष के घेरे
सजनी, कुछ तेरे, कुछ मेरे. . .

अंतर्मन के भोज पत्र पर,
गीत लिखे बहुतेरे
सजनी, कुछ तेरे, कुछ मेरे . . .