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बूढ़े हुए कबीर / अजय पाठक
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बूढ़े हुए कबीर
आजकल
ऊँचा सुनते हैं।
आंखो से है साफ झलकती
भीतर की बेचैनी
हुए अकारथ साखी-दोहे
बिरथा गई रमैनी।
खांस-खांस कर
समरसता की
चादर बुनते हैं।
रह जाते हैं कोलाहल में
शब्द सभी खोए
दुखिया दास कबीर अहर्निश
जागे औ´ रोए
आडंबर के
लेकिन जब-तब
रेशे धुनते हैं।
मगहर का माहौल सियासी
पहले जैसा है
माया ठगिनी की बस्ती में
सब कुछ पैसा है
पंडित, मुल्ला
अब भी
कांकर-पाथर चुनते हैं।
बात-बात पर उन्हें चिढ़ा कर
बालक हैं हंसते
बड़े सयाने जब तक उन पर
ताने हैं कसते
धरम-धजा के
वाहक उनसे
जलते- भुनते हैं।