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धर्मशाला को घर / ओमप्रकाश चतुर्वेदी 'पराग'
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धर्मशाला को वो घर कहने लगा है
मूर्ख मेले को नगर कहने लगा है
जो किसी भी मोड़ पर है छोड़ जाती
उस डगर को हमसफ़र कहने लगा है
रच रहा है दूरगामी योजनाएँ
चार दिन को उम्र भर कहने लगा है
आधुनिकता का चढ़ा है भूत ऐसा
देव-सरिता को गटर कहने लगा है
वो नया पंडित विदेशी व्याकरण का
श्लोक को खारिज-बहर कहने लगा है
दाग़ चेहरे के छुपाने के लिए वो
आइने को बेअसर कहने लगा है
सोचकर मिलना 'पराग' उस आदमी से
वो स्वयं को मान्यवर कहने लगा है!