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किसी साज़िश की साज़िश / माधव कौशिक
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किसी साज़िश की साज़िश में कहीं शामिल नहीं होता
सज़ाए-मौत मिलती है जिसे, क़ातिल नहीं होता ।
हमारे दिल पे तो टूटे हैं पर्वत सैंकड़ों ग़म के
जो इक झटके से टूटे वो असल में दिल नहीं होता ।
चलो इस बार तो तारे उतारें आसमानों से
कोई भी काम मुश्किल से अधिक मुश्किल नहीं होता ।
उसे भी ख़ौफ़ है अपने बदन के सुर्ख़ साये का
मैं कैसे मान लूं शायर कभी बुज़दिल नहीं होता ।
उसी इंसान का चेहरा शहर को याद रहता है
जो रहकर भीड़ में भी, भीड़ में शामिल नहीं होता ।
ज़मीं से बांधकर रखती है उसको मौज सीने की
समुंदर के मुकद्दर में कोई साहिल नहीं होता ।