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दुख नदी भर / हरीश निगम
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सुख अंजुरि-भर
दुख नदी-भर
जी रहे
दिन-रात सीकर!
ढही भीती
उड़ी छानी
मेह सूखे
आँख पानी
फड़फड़ाते
मोर-तीतर!
हैं हवा के
होंठ दरके
फटे रिश्ते
गाँव-घर के
एक मरुथल
उगा भीतर!
आक हो-
आए करौंदे
आस के
टूटे घरौंदे
घेरकर
बैठे शनीचर!