लेखक: हरिवंशराय बच्चन
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टूट गई मरकत की प्याली,
लुप्त हुई मिदरा की लाली,
मेरा व्याकुल मन बहलानेवाले अब सामान कहाँ हैं!
अब वे मेरे गान कहाँ हैं!
जगती के नीरस मरुथल पर,
हँसता था मैं जिनके बल पर,
िचर वसंत-सेिवत सपनों के मेरे वे उद्यान कहाँ हैं!
अब वे मेरे गान कहाँ हैं!
िकस पर अपना प्यार चढाऊँ?
यौवन का उद्गार चढाऊँ?
मेरी पूजा को सह लेने वाले वे पाषाण कहाँ है!
अब वे मेरे गान कहाँ हैं!