भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
अब वे मेरे गान कहाँ हैं / हरिवंशराय बच्चन
Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 03:15, 16 जुलाई 2008 का अवतरण
अब वे मेरे गान कहाँ हैं
टूट गई मरकत की प्याली,
लुप्त हुई मदिरा की लाली,
मेरा व्याकुल मन बहलानेवाले अब सामान कहाँ हैं!
अब वे मेरे गान कहाँ हैं!
जगती के नीरस मरुथल पर,
हँसता था मैं जिनके बल पर,
चिर वसंत-सेवित सपनों के मेरे वे उद्यान कहा हैं!
अब वे मेरे गान कहाँ हैं!
किस पर अपना प्यार चढाऊँ?
यौवन का उद्गार चढाऊँ?
मेरी पूजा को सह लेने वाले वे पाषाण कहाँ है!
अब वे मेरे गान कहाँ हैं!