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साथी, साँझ लगी अब होने! / हरिवंशराय बच्चन
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कवि: हरिवंशराय बच्चन
~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~ फैलाया था जिन्हें गगन में, विस्तृत वसुधा के कण-कण में, उन किरणों के अस्ताचल पर पहुँच लगा है सूर्य सँजोने! साथी, साँझ लगी अब होने!
खेल रही थी धूलि कणों में, लोट-लिपट गृह-तरु-चरणों में, वह छाया, देखो जाती है प्राची में अपने को खोने! साथी, साँझ लगी अब होने!
मिट्टी से था जिन्हें बनाया, फूलों से था जिन्हें सजाया, खेल-घरौंदे छोड़ पथों पर चले गए हैं बच्चे सोने! साथी, साँझ लगी अब होने!