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मन की बात / शशि पाधा

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मन की बात
बताऊँ, रामा!
सुख की कलियाँ
गिरह बाँधूँ
नदिया पीर बहाऊँ, रामा!

माथे की तो पढ़ न पाई
आखर भाषा समझ न आई
नियति खेले आँख मिचौनी
अँखियाँ रह गईं
बँधी बँधाई।
हाथ थाम,
कर डगर सुझाए
ऐसा मीत बनाऊँ, रामा!

कभी दोपहरी झुलसी देहरी
आन मिली शीतल पुरवाई
कभी अमावस रात घनेरी
जुगनू थामे
जोत जलाई
विधना की
अनबूझ पहेली
किस विध अब सुलझाऊँ, रामा!

ताल तलैया, पोखर झरने
देखें अम्बर आस लगाए
नैना पल-पल सावन ढूँढ़ें
बरसे,
मन अंगना हरियाए
धीर धरा,
पतझार बुहारी
रुत वसंत मनाऊँ, रामा!
मन की बात बताऊँ, रामा!