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चेहरे चार / हरीश बी० शर्मा
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एक
सात समंदर-सात आसमाँ
सात शत्रु हैं मेरे
सभी दिशा-दरवाज़े देखे
खुले सातवें फेरे
इतने जतन सत् शोधन को
कितने हुए सवेरे
सूरज बोला
निकल अंधेरे
देखले सच्चे चेहरे
दो
भाषा तेरी
भाषण मेरे
चेहरे पर हैं चेहरे
कौन दोस्त, किसे दुश्मन मानें
पहचानें पर संकट जानें
आस्तीन को कौन खंगाले
संकर हुए सपेरे
तीन
रेत का सागर, तपते धोरे
सपने सीझे मुँह अंधेरे
सुबह जगें तो जलते खीरे
पानी बहुत है गहरे
पानी बहुत है गहरे
चार
रतजगे मेरे
भाव घनेरे
कैसे प्रकटूँ तेरे-मेरे
तीजे नाम पे तलपट हो गई
इतने तेरे-उतने मेरे
टूटे सारे पहरे