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वो जो शायर था / गुलज़ार
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वो जो शायर था चुप सा रहता था
बहकी-बहकी सी बातें करता था
आँखें कानों पे रख के सुनता था
गूंगी ख़ामोशियों की आवाज़ें
जमा करता था चाँद के साए
गीली-गीली सी नूर की बूंदें
ओक़ में भर के खड़खड़ाता था
रूखे-रूखे से रात के पत्ते
वक़्त के इस घनेरे जंगल में
कच्चे-पक्के से लम्हे चुनता था
हाँ वही वो अजीब सा शायर
रात को उठ के कोहनियों के बल
चाँद की ठोडी चूमा करता था
चाँद से गिर के मर गया है वो
लोग कहते हैं ख़ुदकुशी की है