भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

सो न सका / रमानाथ अवस्थी

Kavita Kosh से
पूर्णिमा वर्मन (चर्चा) द्वारा परिवर्तित 01:09, 12 नवम्बर 2006 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

कवि: रमानाथ अवस्थी

~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~

सो न सका कल याद तुम्हारी आई सारी रात

और पास ही बजी कहीं शहनाई सारी रात

मेरे बहुत चाहने पर भी नींद न मुझ तक आई

ज़हर भरी जादूगरनी-सी मुझको लगी जुन्हाई

मेरा मस्तक सहला कर बोली मुझसे पुरवाई

दूर कहीं दो आँखें भर-भर आई सारी रात

और पास ही बजी कहीं शहनाई सारी रात


गगन बीच रुक तनिक चन्द्रमा लगा मुझे समझाने

मनचाहा मन पा लेना है खेल नहीं दीवाने

और उसी क्षण टूटा नभ से एक नखत अनजाने

देख जिसे तबियत मेरी घबराई सारी रात

और पास ही बजी कहीं शहनाई सारी रात


रात लगी कहने सो जाओ देखो कोई सपना

जग ने देखा है बहुतों का रोना और तड़पना

यहाँ तुम्हारा क्या, कोई भी नहीं किसी का अपना

समझ अकेला मौत मुझे ललचाई सारी रात

और पास ही बजी कहीं शहनाई सारी रात


मुझे सुलाने की कोशिश में जागे अनगिन तारे

लेकिन बाज़ी जीत गया मैं वे सबके सब हारे

जाते-जाते चाँद कह गया मुझसे बड़े सकारे

एक कली मुरझाने को मुसकाई सारी रात

और पास ही बजी कहीं शहनाई सारी रात