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उर में अग्नि के शर मार / हरिवंशराय बच्चन

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उर में अग्नि के शर मार!

जब कि मैं मधु स्वप्नमय था,
सब दिशाओं से अभय था,
तब किया तुमने अचानक यह कठोर प्रहार,
उर में अग्नि के शर मार!

सिंह-सा मृग को गिराकर,
शक्ति सारे अंग की हर,
सोख क्षण भर में लिया निःशेष जीवन सार,
उर में अग्नि के शर मार!

हाय, क्या थी भूल मेरी?
कौन था निर्दय अहेरी,
पूछते हैं व्यर्थ उर के घाव आँखें फाड़!
उर में अग्नि के शर मार-