भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

अकेला मानव आज खड़ा है / हरिवंशराय बच्चन

Kavita Kosh से
Dkspoet (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 22:57, 29 सितम्बर 2009 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=हरिवंशराय बच्चन |संग्रह=एकांत-संगीत / हरिवंशरा...)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

अकेला मानव आज खड़ा है!

दूर हटा स्वर्गों की माया,
स्वर्गाधिप के कर की छाया,
सूने नभ, कठोर पृथ्वी का ले आधार अड़ा है!
अकेला मानव आज खड़ा है!

धर्मों-संस्थाओं के बन्धन
तोड़ बना है वह विमुक्त-मन,
संवेदना-स्नेह-संबल भी खोना उसे पड़ा है!
अकेला मानव आज खड़ा है!

जब तक हार मानकर अपने
टेक नहीं देता वह घुटने,
तब तक निश्चय महाद्रोह का झंड़ा सुदृढ़ गड़ा है!
अकेला मानव आज खड़ा है!