भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
मैं ग़ज़ल कहूँ मैं ग़ज़ल पढूँ / बशीर बद्र
Kavita Kosh से
Shrddha (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 15:40, 1 अक्टूबर 2009 का अवतरण (मैं ग़ज़ल कहूँ मैं ग़ज़ल पढ़ुँ / बशीर बद्र का नाम बदलकर मैं ग़ज़ल कहूँ मैं ग़ज़ल पढूँ / बशीर बद्र कर )
मैं ग़ज़ल कहूँ मैं ग़ज़ल पढूँ, मुझे दे तो हुस्न-ए-ख़्याल दे
तिरा ग़म ही मेरी तरबियत, मुझे दे तो रंज-ए-मलाल दे
सभी चार दिन की हैं चांदनी, ये रियासतें ये वज़ारतें
मुझे उस फ़क़ीर की शान दे, के ज़माना जिसकी मिसाल दे
मेरी सुब्हा तेरे सलाम से, मिरी शाम है तेरे नाम से
तिरे दर को छोड़ के जाऊँगा, ये ख़्याल दिल से निकाल दे
मिरे सामने जो पहाड़ थे, सभी सर झुका के चले गए
जिसे चाहे तू ये उरूज दे, जिसे चाहे तू ये ज़वाल दे
बड़े शौक़ से इन्हीं पत्थरों को, शिकम से बाँध के सो रहूँ
मुझे माल ए मुफ़्त हराम है, मुझे दे तो रिज़्क-ए-हलाल दे