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मैं सजग चिर साधना ले! / महादेवी वर्मा
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मैं सजग चिर साधना ले!
सजग प्रहरी से निरन्तर,
जागते अलि रोम निर्भर;
निमिष के बुदबुद् मिटाकर,
एक रस है समय-सागर!
हो गई आराध्यमय मैं विरह की आराधना ले!
मूँद पलकों में अचंचल;
नयन का जादूभरा तिल,
दे रही हूँ अलख अविकल-
को सजीला रूप तिल तिल!
आज वर दो मुक्ति आवे बन्धनों की कामना ले!
विरह का युग आज दीखा,
मिलन के लघु पल सरीखा;
दु:ख सुख में कौन तीखा,
मैं न जानी औ न सीखा!
मधुर मुझको हो गए सब प्रिय की भावना ले!