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सखि मैं हूँ अमर सुहाग भरी! / महादेवी वर्मा

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सखि मैं हूँ अमर सुहाग भरी!
प्रिय के अनन्त अनुराग भरी!

किसको त्यागूँ किसको माँगूँ,
है एक मुझे मधुमय विषमय;
मेरे पद छूते ही होते,
काँटे कलियाँ प्रस्तर रसमय!

पालूँ जग का अभिशाप कहाँ
प्रतिरोमों में पुलकें लहरीं!

जिसको पथ-शूलों का भय हो,
वह खोजे नित निर्जन, गह्वर;
प्रिय के संदेशों के वाहक,
मैं सुख-दुख भेटूँगी भुजभर;

मेरी लघु पलकों से छलकी
इस कण कण में ममता बिखरी!

अरुणा ने यह सीमन्त भरी,
सन्ध्या ने दी पद में लाली;
मेरे अंगों का आलेपन
करती राका रच दीवाली!

जग के दागों को धो-धो कर
होती मेरी छाया गहरी!

पद के निक्षेपों से रज में-
नभ का वह छायापथ उतरा;
श्वासों से घिर आती बदली
चितवन करती पतझार हरा!

जब मैं मरु में भरने लाती
दुख से, रीति जीवन-गगरी!