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रात-रात भर श्वान भूकते / हरिवंशराय बच्चन
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रात-रात भर श्वान भूकते।
पार नदी के जब ध्वनि जाती,
लौट उधर से प्रतिध्वनि आती
समझ खड़े समबल प्रतिद्वदी दे-दे अपने प्राण भूकते।
रात-रात भर श्वान भूकते।
इस रव से निशि कितनी विह्वल,
बतला सकता हूँ मैं केवल,
इसी तरह मेरे उर में भी असंतुष्ट अरमान भूकते।
रात-रात भर श्वान भूकते!
जब दिन होता ये चुप होते,
कहीं अँधेरे में छिप सोते,
पर दिन रात हृदय के मेरे ये निर्दय मेहमान भूकते।
रात-रात भर श्वान भूकते!