भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

उठ खड़ा हो तो बगोला है, जो बैठे तो गु़बार / आरज़ू लखनवी

Kavita Kosh से
चंद्र मौलेश्वर (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 21:14, 5 अक्टूबर 2009 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=आरज़ू लखनवी }} {{KKCatGhazal}} <poem> उठ खडा़ हो तो बगोला है, जो ...)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज


उठ खडा़ हो तो बगोला है, जो बैठे तो गु़बार।
ख़ाक होकर भी वही शान है, दीवाने की॥

‘आरज़ू’! ख़त्म हक़ीक़त पै हुआ दौरे-मजाज़।
डाली काबे की बिना, आड़ से बुतख़ाने की॥