अपने पाठकों से / हरिवंशराय बच्चन
एक कहानी
(१)
कहानी है सृष्टि के प्रारम्भ की। पृथ्वी पर मनुष्य था, मनुष्य में हृदय था, हृदय में पूजा की भावना थी, पर देवता न थे। वह सूर्य को अर्ध्यदान देता था, अग्नि को हविष समर्प्ति कर्ता था, पर वह इतने से ही संतुष्ट न था। वह कुछ और चाहता था।
उसने ऊपर की ओर हाथ उठाकर प्रार्थना की, ’हे स्वर्ग ! तूने हमारे लिए पृथ्वी पर सब सुविधाएँ दीं, पर तूने हमारे लिए कोई देवता नहीं दिया। तू देवताओं से भरा हुआ है, हमारे लिए एक देवता भेज दे जिसे हम अपनी भेंट चढा सकें, जो हमारी भेंट पाकर मुस्कुरा सके, जो हमारे हृदय की भावनाओं को समझ सके। हमें एक साक्षात देवता भेज दे।’
पृथ्वी के बाल-काल के मनुष्य की उस प्रार्थना में इतनी सरलता थी, इतनी सत्यता थी कि स्वर्ग पसीज उठा। आकाशवाणी हुई, ’जा मंदिर बना, शरद ॠतु की पूर्णिमा को जिस समय चंद्र बिंब क्षितिज के ऊपर उठेगा उसी समय मंदिर में देवता प्रकट होंगे। जा, मंदिर बना।’ मनुष्य का हृदय आनन्द से गद्गद हो उठा। उसने स्वर्ग को बारबार प्रणाम किया।
पृथ्वी पर देवता आयेंगे!—इस प्रत्याशा ने मनुष्य के जीवन में अपरिमित स्फूर्ति भर दी। अल्पकाल में ही मन्दिर का निर्माण हो गया। चंदन का द्वार लग गया। पुजारी की नियुक्ति हो गई। शरद पूर्णिमा भी आ गई। भक्तगण सवेरे से ही जलपात्र और फूल अक्षत के थाल ले-लेकर मंदिर के चारों ओर एकत्र होने लगे। संध्या तक अपार जन समूह इकट्ठा हो गया। भक्तों की एक आँख पूर्व क्षितिज पर थी और दूसरी मंदिर के द्वार पर। पुजारी को आदेश था कि देवता के प्रकट होते ही वह शंखध्वनि करे और मंदिर के द्वार खोल दे।
पुजारी देवता की प्रतीक्षा में बैठ था—अपलक नेत्र, उत्सुक मन। सहसा देवता प्रकट हो गए। वे कितने सुंदर थे, कितने सरल थे, कितने सुकुमार थे, कितने कोमल ! देवता देवता ही थे।
बाहर भक्तों ने चंद्र बिंब देख लिया था। अगणित कंठों ने एक साथ नारे लगाए। देवता की जय ! देवता की जय !- इस महारव से दशों दिशाएँ गूँज उठीं, पर मंदिर से शंखध्वनि न सुन पड़ी।
पुजारी ने झरोखे से एक बार इस अपार जनसमूह को देखा और एक बार सुंदर, सुकुमार, सरल देवता को। पुजारी काँप उठा।
समस्त जन समूह क्रुद्ध कंठस्वर से एक साथ चिल्लाने लगा, ’मंदिर का द्वार खोलो, खोलो।’ पुजारी का हाथ कितनी बार साँकल तक जा-जाकर लौट आया।
हजारों हाथ एक साथ मंदिर के कपाट पीटने लगे, धक्के देने लगे। देखते ही देखते चंदन का द्वार टूट कर गिर पड़ा, भक्तगण मंदिर में घुस पड़े। पुजारी अपनी आँखें मूँदकर एक कोने में खड़ा हो गया।
देवता की पूजा होने लगी। बात की बात में देवता फूलों से लद गए, फूलों में छिप गए, फूलों से दब गए। रात भर भक्तगण इस पुष्प राशि को बढ़ाते रहे।
और सबेरे जब पुजारी ने फूलों को हटाया तो उसके नीचे थी देवता की लाश।
(२)
अब भी पृथ्वी पर मनुष्य था, मनुष्य में हृदय था, हृदय में पूजा की भावना थी, पर देवता न थे। अब भी वह सूर्य को अर्ध्यदान देता था, अग्नि को हविष समर्पित करता था, पर अब उसका असंतोष पहले से कहीं अधिक था। एक बार देवता की प्राप्ति ने उसकी प्यास जगा दी थी, उसकी चाह बढा दी थी। वह कुछ और चाहता था।
मनुष्य ने अपराध किया था और इस कारण लज्जित था। देवता की प्राप्ति ने उसकी प्यास जगा दी थी, उसकी चाह बढा दी थी। वह कुछ और चाहता था।
मनुष्य ने अपराध किया था और इस कारण लज्जित था। देवता की प्राप्ति स्वर्ग से ही हो सकती थी, पर वह स्वर्ग के सामने जाए किस मुँह से। उसने सोचा, स्वर्ग का हॄदय महान है, मनुष्य के एक अपराध को भी क्या वह क्षमा न करेगा।
उसने सर नीचा करके कहा, ’हे स्वर्ग, हमारा अपराध क्षमा कर, अब हमसे ऐसी भूल न होगी, हमारी फिर वही प्रार्थना है—पहले वाली।’
मनुष्य उत्तर की प्रत्याशा में खड़ा रहा। उसे कुछ भी उत्तर न मिला।
बहुत दिन बीत गए। मनुष्य ने सोचा समय सब कुछ भुला देता है, स्वर्ग से फिर प्रार्थना करनी चाहिए।
उसने हाथ जोड़कर विनय की, ’हे स्वर्ग, तू अगणित देवताओं का आवास है, हमें केवल एक देवता का प्रसाद और दे, हम उन्हें बहुत सँभाल कर रक्खेंगे।’
मनुष्य का ही स्वर दिशाओं से प्रतिध्वनित हुआ। स्वर्ग मौन रहा।
बहुत दिन फिर बीत गए। मनुष्य हार नहीं मानेगा। उसका यत्न नहीं रुकेगा। उसकी आवाज स्वर्ग को पहुँचनी होगी।
उसने दृढता के साथ खड़े होकर कहा, ’हे स्वर्ग, जब हमारे हृदय में पूजा की भावना है तो देवता पर हमारा अधिकार है। तू हमार अधिकार हमें क्यों नहीं देता?’
आकाश से गड़गड़ाहट का शब्द हुआ और कई शिला खंड़ पृथ्वी पर आ गिरे।
मनुष्य ने बड़े आश्चर्य से उन्हें देखा और मत्था ठोक कर बोला, ’वाह रे स्वर्ग, हमने तुझसे माँगा था देवता और तूने हमें भेजा है पत्थर ! पत्थर !
स्वर्ग बोला, ’हे महान मनुष्य, जबसे मैंने तेरी प्रार्थना सुनी तब से मैं एक पाँव से देवताओं के द्वार-द्वार घूमता रहा हूँ। मनुष्य की पूजा स्वीकार करने का प्रस्ताव सुनकर देवता थरथर काँपते हैं। तेरी पूजा देवताओं को अस्वीकृत नहीं, असह्य है। तेर एक पुष्प जब तेरे आत्मसमर्पण की भावना को लेकर देवता पर चढता है तो उसका भार समस्त ब्रह्मांड के भार को हल्का कर देता है। तेरा एक बूँद अर्ध्य जल जब तेरे विगलित हॄदय के अश्रुओं का प्रतीक बनकर देवता को अर्पित होता है तब सागर अपनी लघुता पर हाहाकार कर उठता है। छोटे देवों ने मुझसे क्या कहा, उसे क्या बताऊँ। देवताओं में सबसे अधिक तेजोपुंज सूर्य ने कहा था, मनुष्य पृथ्वी से मुझे जल चढाता है, मुझे भय है किसी न किसी दिन मैं अवश्य ठंढा पड़ जाऊँगा और मनुष्य किसी अन्य सूर्य की खोज करेगा। हे विशाल मानव, तेरी पूजा को सह सकने की शक्ति केवल इन पाषाणों में है।’
उसी दिन से मनुष्य ने पत्थरों को पूजना आरम्भ किया था और यह जानकर हिमालय सिहर उठा था।