मन धक-धक की माला गूँथे / माखनलाल चतुर्वेदी
मन धक-धक की माला गूँथे,
गूँथे हाथ फूल की माला,
जी का रुधिर रंग है इसका
इसे न कहो, फूल की माला!
पंकज की क्या ताब कि तुम पर--
मेरे जी से बढ़ कर फूले,
मैं सूली पर झूल उठूँ
तब, वह ’बेबस’ पानी पर झूले!
तुम रीझो तो रीझो साजन,
लख कर पंकज का खिल जाना
युग-धन! सीखे कौन, नेह में--
डूब चुके तब ऊपर आना!
पत्थर जी को, पानी कर-कर
सींचा सखे, चरण-नंदन में
यह क्या? पद-रज ऊग उठी
मुझको भटकाया बीहड़ वन में
नभ बन कर जब मैंने ताना
अंधकार का ताना-बाना,
तुम बन आये चंदा बाबू
रहा तुम्हें अब कौन ठिकाना!
नजर बन्द तू लिये चाँदनी
घूम गगन में, बिना सहारा,
मेरे स्वर की रानी झाँके
बन कर छोटा-सा ध्रुव तारा
मैं बन आया रोते-रोते
जब काला-सा खारा सागर,
तब तुम घन-श्याम आ बरसे
जी पर काले बादल बन कर,
हारा कौन? कि बरस-बरस कर
तुमने मेरी शक्ति बढ़ाई,
तेरी यह प्रहार-माला मेरे
जी में मोती बन आई
मैं क्या करता उनको लेकर
तेरी कृपा तुझे पहिना दी,
उमड़-घुमड़ कर फिर लहरों--
से, मैंने प्रलय-रागिनी गा दी!
जब तुम आकर नभ पर छाये
’कलानाथ’बन चंदा बाबू
मैं सागर, पद छूने दौड़ा
ज्वार लिये होकर बेकाबू!
आ जाओ अब जी में पाहुन,
जग न जान पाये ’अनजानी’
कैदी! क्या लोगे? बोलो तो
काला गगन? कि काला पानी?
जब बादल में छुप कर, उसके
गर्जन में तुम बोले बोली
तब ज्वारों की भैरव-ध्वनि की
मैंने अपनी थैली खोली!