प्रलाप / सूर्यकांत त्रिपाठी "निराला"
वीणानिन्दित वाणी बोल!
संशय-अन्धकामय पथ पर भूला प्रियतम तेरा--
सुधाकर-विमल धवल मुख खोल!
प्रिये, आकाश प्रकाशित करके,
शुष्ककण्ठ कण्टकमय पथ पर
छिड़क ज्योत्स्ना घट अपना भर भरके!
शुष्क हूँ--नीरस हूँ--उच्छ्श्रृखल--
और क्या क्या हूँ, क्या मैं दूँ अब इसका पता,
बता तो सही किन्तु वह कौन घेरनेवाली
बाहु-बल्लियों से मुझको है एक कल्पना-लता!
अगर वह तू है तो आ चली
विहगगण के इस कल कूजन में--
लता-कुंज में मधुप-पुंज के ’गुनगुनगुन’ गुंजन में;
क्या सुख है यह कौन कहे सखि,
निर्जन में इस नीरव मुख-चुम्बन में!
अगर बतायेगी तू पागल मुझको
तो उन्मादिनी कहूँगा मैं भी तुझको
अगर कहेगी तू मुझको ’यह है मतवाला निरा’
तो तुझे बताऊँगा मैं भी लावण्य-माधुरी-मदिरा।
अगर कभी देगी तू मुझको कविता का उपहार
तो मैं भी तुझे सुनाऊँगा भैरव दे पद दो चार!
शान्ति-सरल मन की तू कोमल कान्ति--
यहाँ अब आ जा,
प्याला-रस कोई हो भर कर
अपने ही हाथों से तू मुझे पिला जा,
नस-नस में आनन्द-सिन्धु के धारा प्रिये, बहा जा;
ढीले हो जायें ये सारे बन्धन,
होये सहज चेतना लुप्त,--
भूल जाऊँ अपने को, कर के मुझे