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गाता हूँ गीत मैं तुम्हें ही सुनाने को / सूर्यकांत त्रिपाठी "निराला"

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गाता हूँ गीत मैं तुम्हें ही सुनाने को;
भले और बुरे की,
लोकनिन्दा यश-कथा की
नहीं परवाह मुझे;
दास तुम दोनों का
सशक्तिक चरणों में प्रणाम हैं तुम्हारे देव!
पीछे खड़े रहते हो,
इसी लिये हास्य-मुख
देखता हूँ बार बार मुड़ मुड़ कर।
बार बार गाता मैं
भय नहीं खाता कभी,
जन्म और मृत्यु मेरे पैरों पर लोटते हैं।
दया के सागर हो तुम;
दस जन्म जन्म का तुम्हारा मैं हूँ प्रभो!
क्या गति तुम्हारी, नहीं जानता,
अपनी गति, वह भी नहीं,
कौन चाहता भी है जानने को?
भुक्ति-मुक्ति-भक्ति आदि जितने हैं--
जप-तप-साधन-भजन,
आज्ञा से तुम्हारी मैंने दूर इन्हें कर दिया।
एकमात्र आशा पहचान की ही है लगी,
इससे भी करो पार!
देखते हैं नेत्र ये सारा संसार,
नहीं देखते हैं अपने को,
देखें भी क्यों, कहो,
देखते वे अपना रूप
देख दूसरे का मुख।
नेत्र मेरे तुम्हीं हो,
तूप तुम्हारा ही घट घट में है विद्यमान।
बालकेलि करता हूँ तुम्हारे साथ,
क्रोध करके कभी,
तुमसे किनारा कर दूर चला जाता हूँ;
किन्तु निशाकाल में,
देखता हूँ,
शय्या-शिरोभाग में खड़े तुम चुपचाप,