सेवा-प्रारम्भ / सूर्यकांत त्रिपाठी "निराला"
अल्प दिन हुए,
भक्तों ने रामकृष्ण के चरण छुए।
जगी साधना
जन-जन में भारत की नवाराधना।
नई भारती
जागी जन-जन को कर नई आरती।
घेर गगन को अगणन
जागे रे चन्द्र-तपन-
पृथ्वी-ग्रह-तारागण ध्यानाकर्षण,
हरित-कृष्ण-नील-पीत-
रक्त-शुभ्र-ज्योति-नीत
नव नव विश्वोपवीत, नव नव साधन।
खुले नयन नवल रे--
ॠतु के-से मित्र सुमन
करते ज्यों विश्व-स्तवन
आमोदित किये पवन भिन्न गन्ध से।
अपर ओर करता विज्ञान घोर नाद
दुर्धर शत-रथ-घर्घर विश्व-विजय-वाद।
स्थल-जल है समाच्छन्न
विपुल-मार्ग-जाल-जन्य,
तार-तार समुत्सन्न देश-महादेश,
निर्मित शत लौहयन्त्र
भीमकाय मृत्युतन्त्र
चूस रहे अन्त्र, मन्त्र रहा यही शेष।
बढ़े समर के प्रकरण,
नये नये हैं प्रकरण,
छाया उन्माद मरण-कोलाहल का,
दर्प ज़हर, जर्जर नर,
स्वार्थपूर्ण गूँजा स्वर,
रहा है विरोध घहर इस-उस दल का।
बँधा व्योम, बढ़ी चाह,
बहा प्रखरतर प्रवाह,
वैज्ञानिक समुत्साह आगे,
सोये सौ-सौ विचार
थपकी दे बार-बार
मौलिक मन को मुधार जागे!
मैक्सिम-गन करने को जीवन-संहार
हुआ जहाँ, खुला वहीं नोब्ल-पुरस्कार!
राजनीति नागिनी
बसती है, हुई सभ्यता अभागिनी।