भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
तप रे मधुर-मधुर मन / सुमित्रानंदन पंत
Kavita Kosh से
तप रे मधुर-मधुर मन !
विश्व वेदना में तप प्रतिपल,
जग-जीवन की ज्वाला में गल,
बन अकलुष, उज्जवल औ’ कोमल
तप रे विधुर-विधुर मन !
अपने सजल-स्वर्ण से पावन
रच जीवन की मूर्ति पूर्णतम,
स्थापित कर जग में अपनापन;
ढल रे ढल आतुर मन !
तेरी मधुर मुक्ति ही बंधन
गंध-हीन तू गंध-युक्त बन
निज अरूप में भर-स्वरूप, मन,
मूर्तिमान बन, निर्धन !
गल रे गल निष्ठुर मन !
(जनवरी, 1932)