शांत सरोवर का उर
किस इच्छ के लहरा कर
हो उठता चंचल, चंचल !
सोये वीणा के सुर
क्यों मधुर स्पर्श से मरमर्
बज उठते प्रतिपल, प्रतिपल !
आशा के लघु अंकुर
किस सुख से पर फड़का कर
फैलाते नव दल पर दल !
मानव का मन निष्ठुर
सहसा आँसू में झर-झर
क्यों जाता पिघल-पिघल गल !
मैं चिर उत्कंठातुर
जगती के अखिल चराचर
यों मौन-मुग्ध किसके बल !
(फरवरी,1932)