भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

मुखर होने लगीं अनबन की बातें / जहीर कुरैशी

Kavita Kosh से
Shrddha (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 21:23, 15 अक्टूबर 2009 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

मुखर होने लगीं अनबन की बातें
सड़क पर आ गईं आँगन की बातें

हज़ारों उलझनें हैं साथ तेरे
तुम्हें बतलाऊँ किस उलझन की बातें

घिरा रहता है जो दरबारियों से
उसे कड़वी लगीं ‘दर्पन’ की बातें

मैं उससे कुछ नहीं कहता कभी भी
हैं उसपर व्यक्त मेरे मन की बातें

जहाँ दो जून की रोटी भी मुश्किल
वहाँ पर संतुलित भोजन की बातें

भुजंगों के प्रसंगों को घटा कर
न पूरी होंगी चन्दन वन की बातें