भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
वे कुछ दिन / जयशंकर प्रसाद
Kavita Kosh से
Rajeevnhpc102 (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 08:00, 16 अक्टूबर 2009 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=जयशंकर प्रसाद }}<poem>वे कुछ दिन कितने सुन्दर थे? जब …)
वे कुछ दिन कितने सुन्दर थे?
जब सावन-घन-सघन बरसते-
इन आँखों की छाया भर थे!
सुरघनु रंजित नव-जलधर से-
भरे, क्षितिज व्यापी अंबर से,
मिले चूमते जब सरिता के,
हरित कूल युग मधुर अधर थे।
प्राण पपीहा के स्वर वाली-
बरस रही थी जब हरियाली-
रस जलकन मालती-मुकुल से-
जो मदमाते गन्ध विधुर थे।
चित्र खींचती थी जब चपला,
नील मेघ-पट पर वह विरला,
मेरी जीवन-स्मृति के जिसमें-
खिल उठते वे रूप मधुर थे।