भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

आँख लगाई / सूर्यकांत त्रिपाठी "निराला"

Kavita Kosh से
Dkspoet (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 10:22, 17 अक्टूबर 2009 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=सूर्यकांत त्रिपाठी "निराला" |संग्रह=अर्चना / सूर…)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

आंख लगाई
तुमसे जब से हमने चैन न पाई।

छल जो, प्राणों का सम्बल हुआ,
प्राणों का सम्बल निष्कल हुआ,
जंगल रमने का मंगल हुआ,
ज्योति जहाँ वहाँ अंधेरी घिर आई।

राह रही जहाँ वहाँ पन्थ न सूझा,
चाह रही जहाँ वहाँ एक न बूझा,
ऐसी तलवार चली कुनबा जूझा,
बन आई वह कि दूर हुई सगाई।