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पार संसार के / सूर्यकांत त्रिपाठी "निराला"
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पार संसार के,
विश्व के हार के,
दुरित संभार के
नाश हो क्षार के।
सविध हो वैतरण,
सुकृत कारण-करण,
अरण-वारण-वरण,
शरण संचार के।
तान वह छेड़ दी,
सुमन की, पेड़ की,
तीन की, डेढ़ की,
तार के हार के!
वार वनिता विनत,
आ गये तथागत,
अप्रहत, स्नेह रत,
मुक्ति के द्वार के।