इस गाँव में
वक्त चल नहीं पाता
और मेरी आँखों के आगे
सारी कृत्रिमता का केंचुल उतर गया है
सारी रिसर्च कोरी लगती है
सारी किताबें बेमानी..
इस गाँव में
मुड़ी हुई टाँगों वाले आदमी
फटी हुई साड़ी वाली औरतें
नंगे नाक बहाते बच्चे
ऊँचे-ऊँचे पेड
लम्बी चौड़ी पहाड़ियाँ
गहरी प्यारी घाटियाँ
फैला हरा मैदान
मरियल मवेशी
कच्ची झोपडियाँ
पगडंडियाँ और पगडंडियाँ
पीपल, बरगद, आसमान और हवा
इस गाँव में सभी कुछ है..
इस गाँव में
आँकडे बटोरता फिरता हूँ
कुछ डरते हैं मुझसे, कुछ आते हैं करीब
वे नेता हैं
वे बताते हैं, बिजली नहीं है, सरकार नहीं देती
खेत प्यासे रह जाते हैं, आसमान नहीं देता
मज़दूरी पूरी नही मिलती, ठेकेदार नहीं देता
बच्चे नहीं पढते, मास्टर नहीं आता
बीमारियाँ हैं, डाक्टर नहीं आता
चिठ्ठियाँ नहीं आती, डाकिया नहीं आता
मैं सवाल किये बिना रह जाता हूँ
सिर्फ उत्तरों ही उत्तरों से तंग आ कर
दूर पहाड की चोटी की ओर देखने लगता हूं
वहाँ एक झरना है साहब कोई बताता है मुझे
मैं बाईनाकुलर लगा कर देखने की कोशिश करता हूँ
घना जंगल है, पहाड़ी है, झरना है
यहाँ जानवर भी होंगे पूछता हूँ नज़र हटाये बिना
"हैं साहब, शेर भी है, तेंदुआ भी, भालू भी
और भेडिया भी है साहब
कभी कभी मवेशी खा जाता है हमारे
उस रात फूलबाई का बच्चा उठा कर ले गया
आधी खायी हुई लाश
उस झरने से थोडा हट कर मिली.."
मैं बाईनाकुलर से निगाह हटा कर
उस आवाज़ की ओर मुड़ता हूं
जिसमें थोडी भी कम्पन न थी
एसा अक्सर होता है मैंने पूछा
अक्सर साहब..
सरकार कुछ करती है तुम्हारे लिये..
"कभी कभी आते हैं कलेक्टर साहब
मुर्गा बनवाते हैं,
फिर महीनों नहीं आते"
मैं ज़मीन पर गड़ जाता हूं
मुझे इसी ज़मीन का सर्वे करना है
अपनी सारी फाइलें और डायरियाँ
वज़नी लगने लगी हैं
भूगर्भशास्त्री हूँ
हमेशा सोचता था ये धरती कैसे बनी
आज एक एक कदम आगे बढ़ाते हुए
सोच रहा हूँ
ये धरती क्यों बनी...
१३.०७.१९९७