सूख रहे धान और पोखर का जल,
चलो पिया गुहराएँ बादल-बादल।
लदे कहाँ नीम्बू या फालसे, करौंदे,
बये ने बनाए हैं कहाँ-कहाँ घरौंदे,
पपिहे ने रचे कहाँ-
गीत के महल,
ग़ज़ल कहाँ कह पाए ताल में कँवल ।
पौधों की कजराई, धूप ले गई
रात भी उमंगों के रूप ले गई ;
द्वारे पुरवाई
खटकाती साँकल
आई है लेने कंगन या पायल।
इन्द्र को मनाएंगे टुटकों के बल,
रात धरे निर्वसना जोतेंगी हल;
दे जाना
तन-मन से होके निर्मल,
कोंछ भरा चबेना औ' लोटे भर जल।