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वे चुप हैं / अशोक कुमार पाण्डेय

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हत्यारे की शाल की
गुनगुनी ग़र्मी के भीतर
वे चुप हैं

वे चुप हैं
गिनते हुए पुरस्कारों के मनके
कभी-कभी आदतन बुदबुदाते हैं
एक शहीद कवि की पंक्तियाँ
उस कविता से सोखते हुए आग वे चुप हैं

वे चुप हैं
मन ही मन लगाते आवाज़ की कीमत
संस्थाओं की गुदगुदी गद्दियों में करते केलि
सारी आवाज़ों से बाखबर
वे चुप हैं

वे चुप हैं
कि उन्हें मालूम हैं आवाज़ के ख़तरे
व चुप हैं कि उन्हें मालूम हैं चुप्पी के हासिल
चुप हैं कि धूप में नहीं पके उनके बाल
अनुभवों की बर्फ़ में ढालते विचारों की शराब
वे चुप हैं

चुप्पी ख़तरा हो तो हो
ज़िन्दा आदमी के लिए
तरक्कीराम के लिए तो मेहर है अल्लाह की
उसके करम से अभिभूत वे चुप हैं