समाजवाद बबुआ / राजीव रंजन प्रसाद
ल्हासा लाल हो गया है
साम्यवाद ने
खीसें निपोड़ कर कहा है
’धम्मम शरणम गच्छामि’
और पकड़-पकड़ कर तिब्बतियों के
फोड़े जा रहे हैं सर
कील लगे बूटों के सेलूट
खामोश होती गलियों, सड़कों और मठों पर
हुंकार रहे हैं – लाल सलाम।
अफ़ज़लों को पोसने वाले
इस देश की सधी प्रतिक्रिया है
दूसरों के फटे में अपनी टाँग क्योंकर?
वैसे भी यहाँ आज़ादी का अर्थ आखिर
दीवारों पर पिच्च से थूकना
या कि सड़कों पर
अनबुझे सिगरेट के ठुड्डे फेंकना ही तो है?
फिर सरकार की बैसाखियों का रंग लाल है
लेनिन के अंधे को लाल-लाल दिखता है
मजबूरी है भैया
जय गाँधी बाबा की।
घुप्प अंधकार में
जुगनू की चुनौती
कुचल तो दी जायेगी, तय है
और मेरी नपुंसक कलम
आवाज़ नहीं बन सकती, जानता हूँ।
दूर बहरा कर देने की हद तक
पीटा जा रहा है ढोल
नुक्कड़ में क्रांति के ठेकेदार जुटे हैं
देखो भीड़ नें ताली बजाई
समाजवाद बबुआ धीरे धीरे आई...।
16.03.2008