कल्पना चावला के पुनर्जन्म पर / राजीव रंजन प्रसाद
वह कल्पना इस जन्म में, मैं कल्पना करता रहा
यह सोच कोंपल की नये, सोचा किया जलता रहा॥
यह सत्य, मेरे देश में, सपनों पे बरगद है तना
सावन में आँखें छिन गयी, बच्चे हरे-अंधार में
राकेट कागज़ के उडाते, मार खाते, नाक बहती
रात कहती, डूब जायेंगे दिये मझधार में..
मन के सच्चे, कितने कच्चे, एसे बच्चे
कह के झरना, आस की घाटी में हँस झरता रहा।
वह कल्पना इस जन्म में, मैं कल्पना करता रहा॥
कब तक जपोगे तुम कि पूरब में सुबह पहले हुई
रोना रहा जीरो का और अटके दश्मलव पर रहे,
दुनियाँ पहुँचती चाँद पर, सागर के तल को नापती
हैं पूछते बच्चे मेरे, रावण के कितने सर रहे,
नेकर सरकती थाम, टूटी चप्पलें घिसता हुआ
सपना हरी सी बेंत से, सहमा रहा, डरता रहा।
वह कल्पना इस जन्म में, मैं कल्पना करता रहा॥
क्योंकर न एसे ख्वाब हों, क्योंकर न वह विक्षिप्त हो,
भूखा भजन करता रहे, सरकार जब निर्लिप्त हो,
उँचा सिंसेक्स, गर्वित टेक्स-चूसक, नीतिनिर्देशक,
बढे हम किस तरफ, बतलाये मुझको कोई पथदर्शक,
अब भी हजारो बाल का ईस्कूल से नाता नहीं
उसका मजूरा लाडला, भूख से मरता रहा।
वह कल्पना इस जन्म में, मैं कल्पना करता रहा॥
यह जन्म की, या धर्म की, गीता की कोई दास्ता
हर्गिज नहीं, लेकिन मरी उम्मीद फिर पैदा हुई
अम्बर में उडना चाहती, बेटी हमारे गाँव की,
यह बात मामूली किसी भी कोण से हर्गिज नहीं
उसको अगर मन के किसी विज्ञान की दिक्कत भी है
तो भी मेरा उम्मीद से मन, आँख ही भरता रहा।
वह कल्पना इस जन्म में, मैं कल्पना करता रहा॥
9.07.2007
पिछले दिनों मीडिया में अंतरिक्ष वैज्ञानिक कल्पना चावला के पुनर्जन्म की खबर जोरों पर थी। एक ग्रामीण बच्ची नें स्वयं के कल्पना चावला होने का दावा किया था। प्रस्तुत रचना इसी संदर्भ में है।