ओ मेरे यौवन के साथी / हरिवंशराय बच्चन
मेरे यौवन के साथी, तुम
एक बार जो फिर मिल पाते,
वन-मरु-पर्वत कठिन काल के
कितने ही क्षण में कह जाते।
ओ मेरे यौवन के साथी!
तुरत पहुंच जाते हम उड़कर,
फिर उस जादू के मधुवन में,
जहां स्वप्न के बीज बिखेरे
थे हमने मिट्टी में, मन में।
ओ मेरे यौवन के साथी!
सहते जीवन और समय का
पीठ-शीश पर बोझा भारी,
अब न रहा वह रंग हमारा,
अब न रही वह शक्ल हमारी।
ओ मेरे यौवन के साथी!
चुप्पी मार किसी ने झेला
और किसी ने रोकर, गाकर,
हम पहचान परस्पर लेंगे
कभी मिलें हम, किसी जगह पर।
ओ मेरे यौवन के साथी!
हम संघर्ष काल में जन्मे
ऐसा ही था भाग्य हमारा,
संघर्षों में पले, बढ़े भी,
अब तक मिल न सका छुटकारा।
ओ मेरे यौवन के साथी!
औ’ करते आगाह सितारे
और बुरा दिन आने वाला,
हमको-तुमको अभी पड़ेगा
और कड़ी घड़ियों से पाला।
ओ मेरे यौवन के साथी!
क्या कम था संघर्ष कि जिसको
बाप और दादों ने ओड़ा,
जिसमें टूटे और बने हम
वह भी था संघर्ष न थोड़ा।
ओ मेरे यौवन के साथी!
और हमारी संतानों के
आगे भी संघर्ष खड़ा है,
नहीं भागता संघर्षों से
इसीलिए इंसान बड़ा है।
ओ मेरे यौवन के साथी!
लेकिन, आओ, बैठ कभी तो
साथ पुरानी याद जगाएं,
सुनें कहानी कुछ औरों की
कुछ अपनी बीती बतलाएं।
ओ मेरे यौवन के साथी!
ललित राग-रागिनियों पर है
अब कितना अधिकार तुम्हारा?
दीप जला पाए तुम उनसे?
बरसा सके सलिल की धारा?
ओ मेरे यौवन के साथी!
मोहन, मूर्ति गढ़ा करते हो
अब भी दुपहर, सांझ सकारे?
कोई मूर्ति सजीव हुई भी?
कहा किसी ने तुमको ’प्यारे’?
ओ मेरे यौवन के साथी!
बतलाओ, अनुकूल कि अपनी
तूली से तुम चित्र-पटल पर
ला पाए वह ज्योति कि जिससे
वंचित सागर, अवनी, अंबर?
ओ मेरे यौवन के साथी!
मदन, सिद्ध हो सकी साधना
जो तुमने जीवन में साधी?
किसी समय तुमने चाहा था
बनना एक दूसरा गांधी!
ओ मेरे यौवन के साथी!
और कहाँ, महबूब, तुम्हारी
नीली, आंखों वाली ज़ोहरा,
तुम जिससे मिल ही आते थे,
दिया करे सब दुनिया पहरा।
ओ मेरे यौवन के साथी!
क्या अब भी हैं याद तुम्हें
चुटकुले, कहानी किस्से, प्यारे,
जिनपर फूल उठा करते थे
हँसते-हँसते पेट हमारे।
ओ मेरे यौवन के साथी!
हमें समय ने तौला, परखा,
रौंदा, कुचला या ठुकराया,
किंतु नहीं वह मीठी प्यारी
यादों का दामन छू पाया।
ओ मेरे यौवन के साथी!
अक्सर मन बहलाया करता
मैं यों करके याद तुम्हारी,
तुमको भी क्या आती होगी
इसी तरह से याद हमारी?
ओ मेरे यौवन के साथी!
मैं वह, जिसने होना चाहा
था रवि ठाकुर का प्रतिद्वन्दी,
और कहां मैं पहुंच सका हूँ
बतलाएगी यह तुकबंदी।
ओ मेरे यौवन के साथी!