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यात्री-1 / सियाराम शरण गुप्त
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कैसे पैर बढाऊँ मैं?
इस घन गहन विजन के भीतर
मार्ग कहाँ जो जाऊँ मैं?
कुटिल कँटीले झंखाड़ों में
उत्तरीय उड़कर मेरा
उलझ उलझ जाता है, इसको
कहाँ-कहाँ सुलझाऊँ मैं?
कहीं धसी है धरा गर्त में
कहीं चढी है टीलों पर;
मुक्त विहग-सा उड़ जाऊँ जो
पंख कहाँ से लाऊँ मैं?