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अनौचित्य / सियाराम शरण गुप्त
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यह कृषि कितनों की अन्नदा प्राण-दात्री,
अहह घन! तुम्हारी है रही प्रेम-पात्री।
जलधर, तुमने ही तो इसे था बढाया,
फिर उपल गिरा के क्यों स्वयं ही मिटाया।