भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

अपने-पराये / अजित कुमार

Kavita Kosh से
Dkspoet (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 11:52, 1 नवम्बर 2009 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

बादल पराये हैं ।
इसीलिये शायद ये जन-मन को भाये हैं ।
पल भर रहेंगे ये,
दुख नहीं सहेंगे ये,
भार लिये धाराधर मुझ पर झुक आये हैं ।
अपने जो: देते सुख,
दूसरे भले दें दुख-
आँसू के कन मैंने इनसे ही पाये हैं ।
बादल पराये हैं ।
आसमान अपना है ।
जैसे मुझको वैसे इसको भी तपना है ।
भागे तो जाय कहाँ,
मुक्ति भला पाय कहाँ,
उसको तो इसी जगह मरना है, खपना है ।
और भी समानता
मैं हूँ पहचानता-
आसमान भी, मैं भी : सब कैसा सपना है ।
आसमान अपना है ।