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मुक्ति / अजित कुमार

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मुझको समझाने के उपाय
तूने सब
करके देख लिए
अब सच कह दे ।

उसने तुझसे
किस दिन
अपनी कातरता का रोना रोया
भीतर से गर्वीली,
सतुष्ट
किन्तु
ऊपर से विवश, बँधी होने का
तूने कैसे स्वाँग भरा …

फिर क्योंकर
तेरे केश, उँगलियों, बाँहों को
छूते-छूते
उसने तुझको
 अपनी बाँहों में
भींच लिया
तेरी आँखों में
वह चुपकीली कथा
लहरती रहती है,
उसको ओंठों से कहकर
मुक्त
स्वयं हो
मुक्त
मुझे कर दे ।
या केवल चुप रह ।

वही सत्य है
वही मुक्ति है
तेरी, मेरी, उसकी,
सबकी ।