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लय / अजित कुमार

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रख दूंगा, मरोड़ कर
(गीले कपड़े नहीं)गर्दन
अवश्य ।
पर आज नहीं,
कल ।
मुट्ठी से तेज़ी से झरती है रेत ।
 
बूंद-बूंद अन्तिम बूंद तक
रक्त टप-टप टपकेगा ।

चीखती क्यों है री, चिड़िया ।
हँस ।
मौत से पहले एक बार और गा ।

ढूंढता था कबसे ।
अब जाकर मिली है-
वह तीखी तलवार
लम्बे नेज़े-सी, नुकीली, धारदार, लपलप करती ।
नीलाकाश में टूटते हुए तारे
की रेख ।

कर दूंगा उसे छाती से पार, आरपार । अवश्य ।
लेकिन आज नहीं, कल ।

झूलते हैं बच्चे,
सहमते-से
पर खुश ।
पेंगें भरती हैं लड़कियाँ
गूँज रहा बारहमासा-
‘आओ रे सजन । घर आओ रे, हारी ।‘
बेशक वे आयेंगे ।

टिक, टिक, पेंडुलम घड़ी का,
टिक, टिक ।

देह भी तो कल झूलेगी,
छत की कड़ी में अटकी रस्सी से ।
धीरे-धीरे ।
लयबद्ध ।