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जप-तप / अजित कुमार

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एक दूकान चल रही है…
पहले बनी घर,
फिर शहर,
फिर सारा देश ।
सर की जगह
सेर,
दिलों में धरे
किलो,
बाँहें तराजू-सी
झूलती, शिथिल;
कैसा वेश ।
आँख है कि
तथाकथित देसी घी से चीकट
मैली कौड़ी ।
देखो, देखो ।
लुढकती थी जो दुनिया
--निरुद्देश्य—
कभी इधर, कभी उधर ।
अब यहीं आती दौड़ी ।
लुंज-पुंज पैर ।
पर
हथेलियाँ बढी हुई—
लाओ । लाओ ।
पैसा । कहाँ है पैसा ?
लाओ ।
केवल संबंध । व्यापारिक संबंध ।
न तो घृणा, न प्यार,
न दोस्ती, न वैर ।

अनेक मुँह,
लेकिन सब में आवाज़ वही
एक ।
बस, अकेली सच्चाई-
जिसके गज़ से ही
नापा जाता है
सब
विवेक ।

किससे लड़ें ?
सभी से कुछ-न-कुछ मिलना है :
खीसें निपोरता एक व्यक्ति ।
भुनाता हुआ,
पाता हुआ
बदले में
धर्म और शक्ति ।
जिसे समझे थे
भगत,
सीधा-सादा, निरीह ।
नाम उसके ही
लिख गया है
सारा यह जगत ।
वही इसे जपता है
शान से, बेहद-बेहद इत्मीनान से ।
बाक़ी तो सारा ज़माना महज़ तपता है ।
तपे ।