भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

केलंग-2/ पानी / अजेय

Kavita Kosh से
Dkspoet (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 22:55, 1 नवम्बर 2009 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

बुरे वक़्त में जम जाती है कविता भीतर
मानो पानी का नल जम गया हो

चुभते हैं बरफ के महीन क्रिस्टल
छाती में

कुछ अलग ही तरह का होता है, दर्द
कविता के भीतर जम जाने का

पहचान में नहीं आता मर्ज़
न मिलती है कोई `चाबी´
`स्विच ऑफ´ ही रहता है अकसर
सेलफोन फिटर का।