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उषा-दर्शन / अज्ञेय

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मैंने कहा--
डूब चांद।
रात को सिहरने दे
कुइँयों को मरने दे।
आक्षितिज तन फ़ैल जाने दे।
पर तम
थमा और मुझी में जम गया।
मैंने कहा--
उठ री लजीली भोर-रश्मि, सोई
दुनिया में तुझे कोई
देखे मत, मेरे भीतर समा जा तू
चुपके से मेरी यह हिमाहत
नलिनी खिला जा तू।
वो प्रगल्भा मानमयी
बावली-सी उठ सारी दुनिया में फैल गई।