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उम्र-भर मित्रताओं में उलझे रहे / जहीर कुरैशी

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उम्र-भर मित्रताओं में उलझे रहे
उम्र-भर शत्रुताओं में उलझे रहे

किसने समझी है अपनी सही भूमिका
सब गलत भूमिकाओं में उलझे रहे

एक में भी न माहिर हुए इसलिए
लोग सोलह कलाओं में उलझे रहे

अब उन्हें ठोस धरती सुहाती नहीं
जो हमेशा हवाओं में उलझे रहे

आज भी लोक सम्मत है नारी दहन
लोग बर्बर प्रथाओं में उलझे रहे

दृष्टि कैसे हो उनकी सकारात्मक
जो सदा वर्जनाओं में उलझे रहे

लोग कागज़, रबर, पेंसिल थामकर
कागज़ी योजनाओं में उलझे रहे