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संतोष/ सियाराम शरण गुप्त
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जिस दिन तुम इस हृदय कुंज पर
अकस्मात छा जाओगे,
करुणा धाराएँ बरसा कर
सब संताप मिटाओगे।
कहीं शुष्कता नहीं रहेगी,
तृष्णानल बुझ जावेगी;
इसको हरा भरा करके तुम
धूल उड़ा कर यह समीर जो
इसे मलिन करता रहता
तुम सर्वत्र इसी के द्वारा
शुभ सौरभ फैलाओगे!
आतप की इस दु:सहता में
है संतोष यही हमको--
पावस में हे घनश्याम! तुम
नवजीवन ले आओगे।
मार्च 1919, सरस्वती में प्रकाशित