भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
घर के अंतिम बरतनों को बेचकर / जहीर कुरैशी
Kavita Kosh से
द्विजेन्द्र द्विज (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 19:34, 2 नवम्बर 2009 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=जहीर कुरैशी |संग्रह=समंदर ब्याहने आया नहीं है / …)
घर के अंतिम बर्तनों को बेचकर
चल पड़े हम बंधनों को बेचकर
अब न जीवित भी रहे तो ग़म नहीं
सोचते हैं धड़कनों को बेचकर
सत्य से पीछा छुड़ा आए हैं हम
अपने घर के दरपनों को बेचकर
चाहते हैं वक्त पर बरसात भी
लोग हरियाले वनों को बेचकर
होटलों में काम करने आ गए
बाल-बच्चे बचपनों को बेचकर
आपको कुछ खास मिल पाया नहीं
दो टके में सज्जनों को बेचकर
आ गए हैं लौटकर बाज़ार से
लोग अपनी गरदनों को बेचकर