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अमृत-प्रतीक्षा / सरोजिनी साहू

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गर्भवती नारी को घेरकर वे तीन
कर रहे थे अजस्र अमृत-प्रतीक्षा
मगर बंद करके सिंह-द्वार
सोया था वह महामहिम
चिरनिद्रा में मानो रूठकर
सोया हो बंद अंधेरी कोठरी के अंदर

एक अव्यक्त रूठापन
बढ़ रहा था तेज़ी से हृदय-स्पंदन
नाप रहा था स्टेथोस्कोप उसके हृदय की धडकन

देखो !
अचानक पहुँच जाता था पारा
रफ़्तार 140 धड़कन प्रति-मिनिट
सीमातीत ,

प्रतीक्षारत वे तीन, कर रहे थे अजरुा अमृत-प्रतीक्षा
बंद थे जैसे विचित्र कैद में

प्रतीक्षा की थकावट ने,
कर दी उनके
नींद में भी नींदहराम
सपनीली नींद में स्वप्नहीनता

ना वे ज़मीन पर पैर बढ़ा सकते थे
ना वे, गगन में पंछी बन उड़ सकते थे।

प्रतीक्षारत वे तीन,
कर रहे थे अजस्र अमृत-प्रतीक्षा
कि कब
निबुज कोठरी का दरवाज़ा खोल
मायावी जठर की क़ैद तोड
सुबह की धूप की तरह
हँसते-हँसते वह कहेगा
“लो, देखो मैं आ गया हूँ।
भूल गया मैं सारा गुस्सा,
सारी नाराज़गी,
विगत महीनों की असह्य यंत्रणा”

कब वह घड़ी आएगी
जब ख़त्म होगी वह अजरुा अमृत-प्रतीक्षा
कब होंगे वे सब मुक्त बंद क़ैद से,
जब होगा वह महामहिम जठर मुक्त?

कहीं ऐसा न हो
गर्भवती नारी के साथ-साथ
उनको भी लेना होगा पुनर्जन्म
एक बार फिर नया जन्म


मूल ओड़िया से अनुवाद : दिनेश कुमार माली