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रोज़ एल्बम से आ निकलती है / सतीश बेदाग़

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रोज़ एल्बम से आ निकलती है
रोज़ तू मुझसे झगड़ा करती है

तेरी यादों की खोलकर एल्बम
रात मेरे सिरहाने रखती है

एक लम्हा बंधा है पल्ले से
जाने कब इसकी गाँठ खुलती है

कभी पुरख़्वाब थी जो दिल की ज़मीं
तेरी यादों का पानी भरती है

इक घड़ी तेरे संग सदियों से
बस तुझे मिलती मिलती मिलती है

कितने लम्हे बरसते हैं दिल पर
शाख़-ए-माज़ी कोई लचकती है

तेरी ख़ुश्बू की प्यासी शब-शब भर
मेरे सीने पे सर पटकती है

इतनी गर्मी में तेरी याद तुझे
जैसे शिमले में बर्फ़ गिरती है